Thursday, August 30, 2012

                  हिंदी -गजल
                      01
पत्थर के जंगलों में  इंसान नहीं मिलता
दिन में भी ढूढ़ने पर पहचान नहीं मिलता | |

ये शहर है सीमेंट का भरपूर चलन है
दिल जोड़ने का केवल सामान नहीं मिलता | |
 
इकझूठे मुखौटे में   बसर करते यहाँ लोग
सच्चे का यहाँ कोई कदरदा नहीं मिलता  | |

सीने में  भेड़िये का ज़िगर  पालते है लोग
अब, उजले कबूतर को सम्मान नहीं मिलता | |

रहबर यही  से बाटते  बारूद  औ  जहर
खुद अपनी अयोध्या अब राम नहीं मिलता | |

दिन रात देखता हूँ  सभी  दौड़  रहे  है
प्यासे हिरन की प्यास को, विराम नहीं | |

दौलत की हबस  में  यहाँ पिसती है जिन्दगी                            
रिश्तो के लिए कोई, परेशा नहीं दिखता  | |

डॉ उमेश शुक्ल

                       02
हर कोई अपना था, लेकिन कोई भी अपना न था
जींदगी से इस तरह रिश्ता कभी टूटा न था  | |

मुतमईन थे जींदगी से जब कोई ख्व्वाहिस न थी
 साफ था हर अक्स जब तक आइना धुधला न था | |

यूँ  मुझे मालूम था मिलकर पिघल जायेगा वो
फिर नदी बनकर बहा ले जायेगा सोचा न था | |

किस तरह डूबा मै उसमे और क्यों उबारा नहीं
मै कोई पत्थर नहीं था, वों कोई दरिया न था | |

ख्वाहिशों की भीड़ से निकला तो ये मुश्किल हुई
पास था मेरे सभी कुछ इक मेरा चेहरा न था

किस तरह मिलते की हम थे अपनी अपनी कैद सभी
वो ह्याँ और मै हवस के जाल से निकला न था
                      
                              डॉ उमेश चन्द्र  शुक्ल
                             
     
                   03

बुरे दिन हो तो अपनो से भी रिश्ता छूट जाता है
कि जैसे डाल से पतझर में  पत्ता टूट जाता है

जब आंसू देखता है माँ की  आँखों में कोई बच्चा
तो उसके हाथ से गिरकर खिलौना टूट जाता है

जो अपने बंद कमरे में  बुना करती है शहजादी
सहर होने से पहले ही वो सपना टूट जाता है

कोई आसां नहीं है दिल से दिल को जोड़ कर रखना
जरा सी बदगुमानी से ये धागा टूट जाता है

अगर चेहरे  को पढ़ना सीख ले कोई तो फिर देखे
जरा से दुःख में भी इन्सान कितना टूट जाता है

                              डॉ उमेश शुक्ल चन्द्र
                           
 
                            04
चाँद - तारे न देख फ़कत आसमान देख
कार - बंगले न देख ऊचें बने मकाँ न देख


पिसे जा रहे जो कुर्सीयो कि फितरत से
उन मजलूमों को देख सिर्फ तू धनवान न देख


इन्होंने भी तो स्वर उठाया था आजादी का
महज अपने लिए अच्छा कोई मुकाम न देख

इन्हे भी हक़ है कि चैन - वो सुकू कि साँस जीये
मंच  की आड़  से घुटता हुआ इन्सान न देख

बड़े विश्वास से तेरे हाथ में है पतवार दिया
सदन में  बैठे अपने कुनबे की पहचान न देख

चूर हो जायेगा जब भड़केगी उम्मीदों की लहर
शान्त जनता का सोया हुआ तूफान न देख


                              डॉ उमेश शुक्ल चन्द्र
                             
                           05


शहर है भीड़ है बस एक आदमी ही नहीं
वादे है ख्वाब है नीचे कोई जमी ही नहीं

मुझे था हौसला अँधेरे को चीर डालूँगा
हाथ सूरज है मगर इसमें तो रौशनी ही नहीं

रोज बद्शकल होती जा रही है दुनियाँ अब
फिर भी सुनता हूँ  की कोई कही कमी ही नहीं

फासले बढ़ रहे है अब तो अमन के बागो से
सुकू मिलेगा कहा जब की रातरानी ही नहीं

निगलती जा रही कुर्सी समूचे जंगल को
कौन सहेजे इन्हें जब आँख सभी पानी ही नहीं

अब तो लालच ने नपुंसको की भीड़ रच डाली
वतन पर मिटने वाली वो जोशों भरी जवानी ही नहीं
                
                              डॉ उमेश शुक्ल चन्द्र
                           
                       
                     06

बाहर से देखने में  वों लगता तो नेक है
बहशी बना हुआ है ये अन्दर का आदमी

इंसानियत की चीख को सुनाता नहीं कोई
पत्थर का देवता तो पत्थर का आदमी

गैरों से मुझको कोई शिकायत नही हुई
मुझसे ख़फ़ा हुआ है, मेरे घर का आदमी

रहजन कौन है इसका हमें कुछ पता नही
जालिम यहाँ बना है ये रहबर का आदमी

इंसानियत की आँखों में  नश्तर चुभो  के आज
हमदर्द बन रहा है वों बाहर का आदमी

डॉ उमेश शुक्ल
                             

                           07

हमारी इल्तजा इतनी की बात कहने दें
समय के वेग में  हम सब को साथ रहने दें | |

हमारे घाव पर हल्की सी जो मालिश  करता
हजारों साल के पीपल की साख रहने दें | |

मिले जो राह  में  कांटे हजार सह लेंगे
पुराना गाँव, औ चौरा की पांत रहने दें | |

समय के साथ हम दो - चार कदम गह लेगे
पुर्वी बयार पर पश्चिम का घात रहने दें | |

मिले बस आदमी आपस सभी आदमी की तरह
दिलों के बीच अब, पैसे की बात रहने दें | |

लगी है आग जो सिने  में लगी रहने दे
अँधेरी रात में  जलाता चिराग़ रहने दें | |

डॉ उमेश शुक्ल चन्द्र

                           08

वक्त की सांख को छूकर गुजर गया कोई
लरजती शाम से होकर सँवर गया कोई | |

लचीली शाख ने हौले से क्या वदन तोड़ा
थिरकते पांव से चलकर मचल गया कोई | |

रंगीली धूप ने थोड़ी सी रंगत दे दी
महकती गंध से  मह - मह भटक गया कोई | |

पलट कर देखती आंचल से वों ठंडी धारा
नयन के कोर में  धीरे से उतर गया कोई | |

रसीले ओठों से धड़कन - धडक के कहती है
झपकती पलकों में  करवट बदल गया कोई | |

पनीली आँखों में मोती से दाने उभरे
घनेरी रात में  रक्तिम शहर गया कोई | |

मौसमी गात ने रस - रंग - गंध छीना है
सहर की चाह मे नज़रो में उतर गया कोई | |

डॉ उमेश शुक्ल 
                       09
हुस्न के होठों की गूगी जुबान क्या कहिये
पढ़ती आँखों की तिरछी कमान क्या कहिये | |

सरे महफिल हर मौसम को नंगा कर देती
भीगी पैसानी पर बलखाती शाम क्या कहिये | |
पूरा कारवां ही राहों में कही खों जाये
रूप के गॉव से निकला तूफान क्या कहिये | |
कोई बहका, कोई डूबा, कोई मदहोश हुआ
चन्दनी जिस्म से छलका है ज़ाम क्या कहिये | |

पूरी बस्ती ही कस्तूरी लूटने निकली
चाह की राह में  आया उफान क्या कहिये | |

डॉ उमेश शुक्ल 
                      10

अगर ना आदमी होता खुदा तूँ क्या होता
ना तेरा घर होता ना तो कोई पता होता | |

यही वों शै है जिसने जिला रक्खा है तुझे
अगर यह याद न करता तूँ गुमशुदा होता | |
तेरा वजूद ही जन्नत का ख्वाब ख्वाब रख्खा है
वर्ना हर रूह में दोज़ख का तशकिरा होता | |
बड़ा अच्छा है कि एहसास में  ही सिमटा तूँ
कोई भी शक्ल पकड़ता तो बिक गया होता | |
तेरी मौजूदगी ही पाँव को जकड़ती है
वर्ना हर गावँ गुनाहों में  छप गया होता
डॉ उमेश शुक्ल चन्द्र

                      11
रोशनी से मुंह छुपाना छोड़ दो
रात की चादर बिछाना छोड़ दो | |

तुम पर भी इस ज़मी का एहसान है
इसके चेहरे को जलाना छोड़ दो | |

बदशकल दुनियां बहुत हो जाएगी
जख्म में खंजर घुमाना छोड़ दो | |

कोई इबादत क़त्ल खूं कहती नहीं
जेहाद का झूठा बहाना छोड़ दो

तेरी करनी तुझको ही खा जाएगी
आतंक की माला घुमाना छोड़ दो | |

मैने देखा तो झुलस जाओगे तुम
हम को यूँ आँखे दिखाना छोड़ दों | |
डॉ उमेश शुक्ल 




                  
घोटालो के दौर  में, अन्ना  की फुफकार |
माल इधर  भी भेजिये,  मनमोहन सरकार | |


नीति नियम  सिद्धांत  की, बाते  हुई  पुराण |
नगद  नरायण देवता,  बाकी  है सब घाण | |


लोकतंत्र  के  खेल  में ,प्रतिपक्षी  है लगाम
नीति नियम  सिध्दांत  मूल्य ,सत्ता के आधार | |

घोटाले  की आग में ,झुलस  रही  सरकार  |
सत्ता  के इस  खेल में ,जनता  है लाचार  | |

नीति नियम सिद्धांत मूल्य ,जीवन  का व्यवहार |
मीठे वचन सद्विचार ,सनातनी  उपहार   |  |

जीवन का आधार  जल,सोच समझ  कर पीव |
संचित  बूंद समुद्र गति ,वीधना की गति जीव | |

बोली का व्यापार  कर ,संचित पूंजी  होय |
लोग -बाग़ विहसित  रहे ,मधुर बचन  जो होय | |